अमेरिकन कैमिकल सोसायटी (एसीएस) के जर्नल 'एनालिटिकल कैमिस्ट्री' में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि इस परीक्षण का तपेदिक के इलाज का असर जानने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
वर्तमान में चिकित्सक बलगम या रक्त के नमूने में टीबी बैक्टीरिया की पहचान कर इस बीमारी का पता लगाते हैं लेकिन इन परीक्षणों में काफी समय लगता है। कभी-कभी तो परीक्षण के परिणाम आने में कई दिन या सप्ताहों का समय लग जाता है। इस परीक्षण को करने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता होती है और महंगे उपकरणों का इस्तेमाल होता है। कई स्थानों पर ये सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं।
आईसीजीईबी के वैज्ञानिक वीरेंद्र सिंह चौहान व रंजन नंदा के नेतृत्व में तेपेदिक की जांच के लिए ऐसी विधि खोज रहे थे जिसमें ये कमियां न हों।
उन्होंने तपेदिक के मरीजों के मूत्र में ऐसे तथाकथित वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (वीओसी) देखे जो स्वस्थ लोगों के मूत्र में मौजूद ऐसे ही यौगिकों की तुलना में हवा में आसानी से वाष्पित हो जाते हैं।
वैज्ञानिकों ने देखा कि तपेदिक के संक्रमण वाले मरीजों में एक खास तरह के वीओसी होते हैं। ये दूसरों के वीओसी से उसी तरह अलग होतें हैं जैसे अलग-अलग व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट्स अलग होते हैं।
एक छोटी सी 'इलेक्ट्रॉनिक नोज' की मदद से वीओसी के अलग पैटर्न की पहचान की जा सकती है और फिर इससे तपेदिक का पता लगाया जा सकता है।
तपेदिक से करीब एक करोड़ लोग पीड़ित हैं और इस बीमारी से हर साल 30 लाख लोग मारे जाते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक भारत में हर साल करीब 20 लाख लोग तपेदिक की चपेट में आते हैं। इनमें से 8.7 लाख लोगों में संक्रमण के कारण यह बीमारी होती है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में इस बीमारी से हर साल 330,000 लोगों की मौत होती है। दुनियाभर के तपेदिक के मामलों का पांचवा हिस्सा भारत में मिलता है।
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